भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने में सांस्कृतिक संगठनों को भी निभानी होगी विशेष भूमिका
प्राचीनकाल में भारत विश्व गुरु रहा है इस विषय पर अब कोई शक की गुंजाईश नहीं रही है क्योंकि अब तो पश्चिमी देशों द्वारा पूरे विश्व के प्राचीन काल के संदर्भ में की गई रिसर्च में भी यह तथ्य उभरकर सामने आ रहे हैं। भारत क्यों और कैसे विश्व गुरु के पद पर आसीन रहा है, इस संदर्भ में कहा जा रहा है कि भारत में हिंदू सनातन संस्कृति के नियमों के आधार पर भारतीय नागरिक समाज में अपने दैनंदिनी कार्य कलाप करते रहे हैं। साथ ही, भारतीयों के डीएनए में आध्यतम पाया जाता रहा है जिसके चलते वे विभिन्न क्षेत्रों में किए जाने वाले अपने कार्यों को धर्म से जोड़कर करते रहे हैं। लगभग समस्त भारतीय, काम, अर्थ एवं कर्म को भी धर्म से जोड़कर करते रहे हैं। काम, अर्थ एवं कर्म में चूंकि तामसी प्रवृत्ति का आधिक्य बहुत आसानी से आ जाता है अतः इन कार्यों को तासमी प्रवृत्ति से बचाने के उद्देश्य से धर्म से जोड़कर इन कार्यों को सम्पन्न करने की प्रेरणा प्राप्त की जाती है। जैसे, भारतीय शास्त्रों में काम में संयम रखने की सलाह दी जाती है तथा अर्थ के अर्जन को बुरा नहीं माना गया है परंतु अर्थ का अर्जन केवल अपने स्वयं के हित के लिए करना एवं इसे समाज के हित में उपयोग नहीं करने को बुरा माना गया है। इसी प्रकार, दैनिक जीवन में किए जाने वाले कर्म भी यदि धर्म आधारित नहीं होंगे तो जिस उद्देश्य से यह मानव जीवन हमें प्राप्त हुए है, उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकेगी। इसे भी पढ़ें: 'हम बंदूक की नोंक पर बात नहीं करते', अरेरिका से ट्रेड टॉक के बीच ऐसा क्यों बोले पीयूष गोयलप्राचीनकाल में भारत में राजा का यह कर्तव्य होता था कि उसके राज्य में निवास कर रही प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो और यदि किसी राज्य की प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट होता था तो वह नागरिक अपने कष्ट निवारण के लिए राजा के पास पहुंच सकता था। परंतु, जैसे जैसे राज्यों का विस्तार होने लगा और राज्यों की जनसंख्या में वृद्धि होती गई तो उस राज्य में निवास कर रहे नागरिकों के कष्टों को दूर करने के लिए धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन भी आगे आने लगे एवं नागरिकों के कष्टों को दूर करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करने लगे। समय के साथ साथ धनाडय वर्ग भी इस पावन कार्य में अपनी भूमिका निभाने लगा। फिर, और आगे के समय में एक नागरिक दूसरे नागरिक की परेशानी में एक दूसरे का साथ देने लगे। परिवार के सदस्यों के साथ पड़ौसी, मित्र एवं सह्रदयी नागरिक भी इस प्रक्रिया में अपना हाथ बंटाने लगे। इस प्रकार प्राचीन भारत में ही व्यक्ति, परिवार, पड़ौस, ग्राम, नगर, प्रांत, देश एवं पूरी धरा को ही एक दूसरे के सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा। “वसुधैव कुटुंबकम”, “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय”, “सर्वे भवंतु सुखिन:” का भाव भी प्राचीन भारत में इसी प्रकार जागृत हुआ है। “व्यक्ति से समष्टि” की ओर, की भावना केवल और केवल भारत में ही पाई जाती है। वर्तमान काल में लगभग समस्त देशों में चूंकि समस्त व्यवस्थाएं साम्यवाद एवं पूंजीवाद के नियमों पर आधारित हैं, जिनके अनुसार, व्यक्तिवाद पर विशेष ध्यान दिया जाता है और परिवार तथा समाज कहीं पीछे छूट जाता है। केवल मुझे कष्ट है तो दुनिया में कष्ट है अन्यथा किसी और नागरिक के कष्ट पर मेरा कोई ध्यान नहीं है। जैसे यूरोपीयन देश उनके ऊपर किसी भी प्रकार की समस्या आने पर पूरे विश्व का आह्वान करते हुए पाए जाते हैं कि जैसे उनकी समस्या पूरे विश्व की समस्या है परंतु जब इसी प्रकार की समस्या किसी अन्य देश पर आती है तो यूरोपीयन देश उसे अपनी समस्या नहीं मानते हैं। यूरोपीयन देशों में पनप रही आतंकवाद की समस्या पूरे विश्व में आतंकवाद की समस्या मान ली जाती है। परंतु, भारत द्वारा झेली जा रही आतंकवाद की समस्या यूरोप के लिए आतंकवाद नहीं है। यह पश्चिमी देशों के डीएनए में है कि विकास की राह पर केवल मैं ही आगे बढ़ूँ, जबकि भारतीयों के डीएनए में है कि सबको साथ लेकर ही विकास की राह पर आगे बढ़ा जाय। यह भावना भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठनों में भी कूट कूट कर भरी है। इसी तर्ज पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कार्य करता हुआ दिखाई दे रहा है। संघ के लिए राष्ट्र प्रथम है, और भारत में निवास करने वाले हम समस्त नागरिक हिंदू हैं, क्योंकि भारत में निवासरत प्रत्येक नागरिक से सनातन संस्कृति के संस्कारों के अनुपालन की अपेक्षा की जाती है। भले ही, हमारी पूजा पद्धति भिन्न भिन्न हो सकती है, परंतु संस्कार तो समान ही रहने चाहिए। इसी विचारधारा के चलते आज संघ देश के कोने कोने में पहुंचने में सफल रहा है। संघ ने न केवल राष्ट्र को एकजुट करने का काम किया है, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं के समय तथा उसके बाद राहत एवं पुनर्वास कार्यों में भी अपनी सक्रिय भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है। इस वर्ष संघ अपना शताब्दी वर्ष मनाने जा रहा है परंतु संघ इसे अपनी उपलब्धि बिल्कुल नहीं मानता है बल्कि संघ के लिए तो शताब्दी वर्ष भी जैसे स्थापना वर्ष है और उसी उत्साह से अपने कार्य को विस्तार तथा सुदृढीकृत करते हुए आगे बढ़ने की बात कर रहा है। संघ का अपनी 100 वर्षों की स्थापना सम्बंधी उपलब्धि को उत्सव के रूप में मनाने का विचार नहीं है बल्कि इस उपलक्ष में संघ के स्वयंसेवकों से अपेक्षा की जा रही है कि वे आत्मचिंतन करें, संघ कार्य के लिए समाज द्वारा दिए गए समर्थन के लिए आभार प्रकट करें एवं राष्ट्र के लिए समाज को संगठित करने के लिए स्वयं को पुनः समर्पित करें। शताब्दी वर्ष में समस्त स्वयंसेवकों से अधिक सावधानी, गुणवत्ता एवं व्यापकता से कार्य करने का संकल्प लेने हेतु आग्रह किया जा रहा है। आज संघ कामना कर रहा है कि पूरे विश्व में निवास कर रहे प्राणी शांति के साथ अपना जीवन यापन करें एवं विश्व में लड़ाई झगड़े का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अतः हिंदू सनातन संस्कृति का पूरे विश्व में फैलाव, इस धरा पर निवास कर रहे समस्त प्राणियों के हित में है। इस संदर्भ में आज हिंदू स

भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने में सांस्कृतिक संगठनों को भी निभानी होगी विशेष भूमिका
The Odd Naari
लेखिका: साक्षी शर्मा, टीम नेटा नगरी
परिचय
भारत, जो एक समय में ज्ञान, संस्कृति और विज्ञान का केंद्र था, आज फिर से उस गौरव को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। इस दिशा में सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। सांस्कृतिक व निकाय संगठन और गैर-सरकारी संगठन देश की संस्कृति, परंपरा और उनकी महत्ता को विश्व के सामने पेश करने में दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं।
सांस्कृतिक संगठनों का इतिहास
भारत की सांस्कृतिक परंपराएँ सदियों से विविधता और समृद्धि का प्रतीक रही हैं। प्राचीन समय से लेकर आज तक, सांस्कृतिक संगठनों ने भारतीय संस्कृति को संरक्षित एवं प्रचारित करने का कार्य किया है। जैसे कि संगीत, नृत्य, चित्रकला और शिल्पकला के माध्यम से, भारत ने सांस्कृतिक धरोहर को न केवल अपने देश में, बल्कि अन्य देशों में भी फैलाने का कार्य किया है।
सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका
आज की वैश्वीकृत दुनिया में, सांस्कृतिक संगठनों को एक विशेष भूमिका निभानी होगी। इन संगठनों के माध्यम से, भारत को अपनी कला, साहित्य, और संस्कृति पर गर्व करने का अवसर मिल सकता है। यह संगठनों को कई स्तरों पर कार्य करना होगा:
- शिक्षा और जागरूकता: विद्यार्थियों और युवाओं में सांस्कृतिक जागरूकता फैलाना।
- संवर्धन: पारंपरिक कला और संगीत का बढ़ावा देना।
- कार्यक्रम और समारोह: विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना जिससे वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति का परिचय हो।
आधुनिक भारत और सांस्कृतिक संवाद
भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था और छवि को विश्व मंच पर स्थापित करने के लिए, सांस्कृतिक संवाद की आवश्यकता है। डिजिटल प्लेटफार्म जैसे सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से, भारतीय संस्कृति को विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना संभव हो रहा है।
निष्कर्ष
भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने के लिए, सांस्कृतिक संगठनों की आवश्यक भूमिका कोई निर्विवाद नहीं है। इन संगठनों को मजबूत करना और समर्थन करना अनिवार्य है ताकि हमारे धरोहरों को सही तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। अगर हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों का सम्यक प्रचार करें, तो निश्चित ही भारत एक बार फिर से विश्व में गौरव का स्थान प्राप्त कर सकता है।