क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व को मिल पाएगी तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति?

दुनियावी चक्रब्यूह में निरंतर घिरते जा रहे अमेरिका ने जब यौद्धिक 'चंद्रायण व्रत' की बात कही तो सहसा विश्वास नहीं हुआ! वहीं, दुनिया के थानेदार की मजबूरी, दूरदर्शिता और खुदगर्जी भी स्पष्ट महसूस हुई। क्योंकि लगातार किसी न किसी सांसारिक संघर्ष में उलझकर थक-हार चुके देश अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी विक्ट्री रैली में विक्ट्री स्पीच देते हुए जो कुछ संकेत दिया, उसका सार-सत्य यही है कि अपने लोगों के बेहतर भविष्य के लिए अमेरिका अब तीसरा विश्व युद्ध नहीं लड़ना चाहता है और इसकी बची-खुची संभावनाओं को भी जल्द खत्म करने की हिमायत करेगा। इसलिए सवाल उठ रहा है कि क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व को तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति मिल पाएगी? या फिर यह किसी अन्य देश यथा- चीन या रूस के मार्फ़त अन्य देशों पर थोपी जाएगी, जिससे प्रथम विश्वयुद्ध की भांति अमेरिका दूर रहेगा। यूं तो दूसरे विश्वयुद्ध के शुरुआती चरण में भी अमेरिका इस महायुद्ध से दूर ही रहा था, लेकिन जब मजबूरी वश उसमें शामिल हुआ तो युद्ध के परिणामों को अपने गुट पक्ष में बदल दिया। इसे भी पढ़ें: युद्धमुक्त विश्व के ट्रंप के संकल्पों की रोशनीवहीं, उसकी मौजूदा साफगोई से भी इसी बात का पता चलता है कि अभी भले ही वह तीसरा विश्वयुद्ध नहीं लड़ना चाहता हो, लेकिन यदि उस पर तीसरा विश्वयुद्ध थोपा गया तो इसके भी परिणाम बदलने की क्षमता उसमें है और रही-सही कसर को पूरा करने के लिए ही वह 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' पर फोकस करना चाहता है। कहा भी गया है कि अग्र सोची, सदा सुखी। इसलिए डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने अपना नया रास्ता चुन लिया है। अब शेष विश्व को यह तय करना है कि वह आगे क्या करेगा। इस नजरिए से भारत की राह भी स्पष्ट है। जो अमेरिका से अब एक हद तक मिलती जुलती है।कहना न होगा कि समकालीन विश्व में कभी जल के सवाल पर, कभी तेल के प्रश्न पर, कभी रूसी कीप एंड बैलेंस की नीतियों से, तो कभी चीनी विस्तारवादी रणनीतियों से और कभी दुनिया के देशों पर शासन करने की इस्लामिक देशों की सामूहिक महत्वाकांक्षा से अभिप्रेरित तृतीय विश्वयुद्ध की अमूमन दस्तक देता रहता है। जानकार बताते हैं कि यूएसए और यूएसएसआर के बीच शीत युद्ध की समाप्ति के बाद भले ही अमेरिका ने दुनिया की थानेदारी की, लेकिन अमेरिकी नेतृत्व वाले 'नाटो' को अब जिस तरह से रूस और चीन मिलकर 'ब्रिक्स देशों' के मार्फ़त घेर रहे हैं, उससे तीसरा विश्वयुद्ध अवश्यम्भावी प्रतीत होता है।आपने देखा होगा कि कभी मिडिल-ईस्ट देशों में, तो कभी क्वाड देशों के अगुवा के तौर पर अमेरिका की भूमिका अक्सर संदेह के घेरे में रही है। वहीं, रूस-यूक्रेन विवाद के युद्ध में तब्दील हो जाने के बाद अमेरिकी दुविधा को लेकर और उसकी नवपरिवर्तित आर्थिक नीतियों को लेकर यूरोपीय संघ के कुछ देशों, यथा- जर्मनी-फ्रांस-इंग्लैंड आदि के द्वारा जिस तरह से उसके नेतृत्व पर सवाल उठाए जाने लगे हैं, इससे अमेरिकी चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। वहीं, ग्रीन लैंड द्वीप को खरीदने, पनामा नहर पर पुनः अमेरिकी प्रभुत्व स्थापित करने, मेक्सिको के समीप दीवार खड़ा करने, कनाडा को अमेरिका में मिलाने आदि को लेकर जो अमेरिकी सक्रियता दिखी है, उससे अमेरिकी-यूरोपीय महाद्वीपों में हलचल स्वाभाविक हैं। यदि एशिया महाद्वीप की बात करें तो यहां चीन-रूस की जोड़ी अमेरिका पर हावी है। भारत को साथ लेकर अमेरिका यहां संतुलन साधना चाहता है, लेकिन भारत-रूस की पुरानी मित्रता यहां आड़े आ जाती है। वहीं, अफगानिस्तान-पाकिस्तान-बंगलादेश-म्यांमार-श्रीलंका आदि भारत के पड़ोसी देशों को लेकर और जम्मूकश्मीर से तिब्बत तक के विवादों को सुलझाने की दिशा में अमेरिका की 'क्षुद्र रणनीतियों' की वजह से भारत भी उस पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पा रहा है। वहीं, उत्तर कोरिया, ताइवान, दक्षिण कोरिया, जापान, दक्षिण चीन सागर से जुड़े देशों और आशियान देशों के प्रति अमेरिका की जो ढुलमुल रणनीति रही है, उससे भी भारत चिंतित रहता है। या फिर अरब देशों पर आधिपत्य को लेकर जो अमेरिकी रणनीति रही है, उससे भी भारत परेशान रहता है। भारत इजरायल के निकट है, लेकिन अरब देशों को भी नाराज करने की स्थिति में वह नहीं है। जबकि ईरान से लेकर यूक्रेन तक में अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो की जो भूमिका रही है, सीरिया से लेकर यूक्रेन तक जो अमेरिकी रणनीति रही है, इससे भारतीय कूटनीति भी प्रभावित होती आई है।यही वजह है कि यदि अमेरिका अपनी पुरानी शस्त्र व्यापार कूटनीति पर अडिग रहता है तो तीसरा विश्वयुद्ध अवश्यम्भावी है। वहीं, इधर देखा जा रहा है कि जर्मनी-फ्रांस, भारत-जापान, ईरान-तुर्किये, ऑस्ट्रेलिया-ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका-इंग्लैंड, कनाडा-मैक्सिको आदि पर नाटो का प्रभाव जहां कम हुआ है, वहीं ब्रिक्स देशों के नेतृत्वकर्ता चीन-रूस का रणनीतिक दबाव बढ़ा है। ऐसे में अमेरिकी महत्वाकांक्षाओं को काबू में रखने में ही अमेरिका की भलाई है। शायद दुनिया के विभिन्न देशों की बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के चलते ही अमेरिका ने अब अपने को कछुए की भांति निज कवच में ही महफूज रहने की रणनीति अपना ली है, जो उसका दूरदर्शिता भरा कदम है। वहीं, अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध, चीन-ताइवान विवाद आदि के बाद सम्भावित तीसरे विश्व युद्ध की अलग-अलग उठ रही शंकाओं/संभावनाओं को हतोत्साहित करने के लिए अपनी ओर से जो प्रतिबद्धता जताई है, वह काबिलेतारीफ है।अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद  दिए अपने भाषण में ट्रंप ने कहा कि 'अमेरिका का स्वर्णिम काल अभी से शुरू हो गया है। हम अपनी संप्रभुता बनाए रखेंगे। दुनिया हमारा इस्तेमाल नहीं कर सकेगी। अमेरिका में अब घुसपैठ नहीं होगी।' इस दौरान एक बार फिर ट्रंप ने 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' का नारा दोहराया।इस दौरान ट्रंप ने साफ कहा कि अमेरिका में अब सेंसरशिप नहीं होगी। आज की तारीख अमेरिकियों के लिए आजादी का दिन है। अब हमारे देश क

क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व को मिल पाएगी तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति?
क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व को मिल पाएगी तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति?

क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व को मिल पाएगी तीसरे विश्वयुद्ध से मुक्ति?

लेखिका: राधिका शर्मा, टीम नेटानागरी

The Odd Naari

परिचय

दुनिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां अमेरिका का प्रभाव और वैश्विक राजनीति की चालें एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा करती हैं: क्या अमेरिका के स्वर्णिम दौर में शेष विश्व तीसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से मुक्ति पा सकेगा? यह लेख उन कारकों की चर्चा करेगा जो इस स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं, साथ ही यह भी बताएगा कि कैसे वैश्विक सहयोग और राजनीतिक वार्ताओं से शांति स्थापित की जा सकती है।

अमेरिका का स्वर्णिम दौर और उसकी चुनौतियाँ

अमेरिकी इतिहास में स्वर्णिम दौर को एक सकारात्मक परिवर्तन का समय माना जाता है, जब अमेरिका ने न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि तकनीकी और सामरिक दृष्टि से भी बढ़त हासिल की। लेकिन क्या यह दौर वैश्विक कल्याण की दिशा में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है? अमेरिका का सामरिक खर्च और युद्ध नीति, विशेष रूप से मध्य पूर्व में, विश्व शांति पर दाग डालने का काम करती रही है।

तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा

आधुनिक समय में कई विशेषज्ञ तीसरे विश्वयुद्ध की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। रूस और चीन जैसे देशों के बीच बढ़ते तनाव, विशेषकर यूक्रेन संकट के चलते, दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर ले जा रही है जहां स्थिति को नियंत्रित करना मुश्किल हो सकता है। ऐसे में अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि अमेरिका तनाव को कम करने में सफल होता है, तो शांति की उम्मीद बढ़ती है।

वैश्विक सहयोग और संवाद की आवश्यकता

ग्लोबल वार्मिंग, आर्थिक असमानता, और आतंकवाद जैसे मुद्दे केवल एक देश का मामला नहीं हैं। इसलिए, अमेरिका को चाहिए कि वह अन्य देशों के साथ मिलकर वैश्विक स्तर पर संवाद स्थापित करें। अधिक अपडेट के लिए, यहाँ जाएं। ऐसे प्रयासों से न केवल वैश्विक सामंजस्य बढ़ेगा बल्कि दरारों को भी पाटने में मदद मिलेगी जो संघर्ष का कारण बनती हैं।

संभावित समाधान और भविष्य की दिशा

अमेरिका को यह समझना होगा कि विश्व में उसके कार्यों का व्यापक प्रभाव पड़ता है। वैश्विक शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए उसे अपनी नीतियों में संशोधन करना होगा। इसके अलावा, अन्य देशों को एकजुट होकर सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है, ताकि युद्ध की स्थिति से बचा जा सके।

निष्कर्ष

संक्षेप में, अमेरिका के स्वर्णिम दौर के बीच तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा हमेशा विद्यमान रहेगा। लेकिन यदि वैश्विक सहयोग और चतुर संवाद का अपनाया जाए, तो शांति की एक नई कहानी लिखी जा सकती है। यह समय है कि विश्व एकजुट होकर संघर्ष को समाप्त करे और समृद्धि की ओर बढ़े।

Keywords

third world war, USA golden era, global peace, international relations, political dialogue, world peace, global cooperation, conflict resolution, strategic military spending, international unity