मुफ्त की होड़ में दिल्ली के बुनियादी मुद्दे गायब?
सड़क से लेकर सीवर तक, पर्यावरण से लेकर विकास तक दिल्ली के बुनियादी मुद्दे की जगह मुफ्त की सुविधाओं की होड़ ने दिल्ली के चुनाव को जिन त्रासद दिशाओं में धकेला है, वह न केवल दिल्ली बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के लिये एक चिन्ता का बड़ा सबब बन रहा है। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी एवं भारतीय जनता पार्टी -तीनों दलों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए हैं लेकिन उसमें दिल्ली से जुड़े जरूरी एवं बुनियादी मुद्दों के स्थान पर नगद एवं मुफ्त की सुविधाओं के ही अंबार लगे हैं। दिल्ली चुनाव में अधिकांश बहस तरह-तरह की मुफ्त सुविधाओं की अप्रासंगिक और अवांछित विषयों पर केंद्रित है। जल्दी ही दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे देश की राजधानी के चुनाव में इससे बेहतर की उम्मीद थी। चूंकि जरूरी मुद्दें नहीं उठ रहे हैं इसलिए भाषा भी निम्नस्तरीय बनी हुई है, दोषारोपण एवं छिद्रान्वेषण ही हो रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा अप्रासंगिक मुद्दों पर बात करने की एक खास वजह चुनावों की प्रक्रिया में मुफ्त की सुविधाएं एवं नगद राशि का बढ़ता आकर्षण है। भाजपा दिल्ली को विकसित एवं अत्यंत आधुनिक राजधानी बनाना चाहती है तो उसके लिए यह अवसर था कि वह अपनी भावी योजनाओं और भविष्य के खाके पर बात करती, लेकिन वह भी महिलाओं एवं मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये बढ़-चढ़कर मुफ्त संस्कृति का सहारा ले रही है। कांग्रेस के लिए यह मौका था कि वे उन क्षेत्रों को रेखांकित करती जिनमें आप सरकार अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी। वे मतदाताओं के समक्ष बेहतर विकल्प भी प्रस्तुत कर सकती थी। कांग्रेस को चाहिए था कि वह शीला दीक्षित के दौर में हुए दिल्ली के विकास को चुनावी मुद्दा बनाती, दिल्ली को पेरिस बनाने की बात को बल दिया जाता, लेकिन उसका प्रचार अभियान मुफ्त की सुविधओं के इर्दगिर्द ही घूम रहा है, जो एक विडम्बना एवं त्रासदी ही है।इसे भी पढ़ें: Chai Par Sameeksha: राहुल गांधी की हरकत बचकानी या कुछ और है कहानी, Indian States से लड़ाई क्यों लड़ रहे?यह दुर्भाग्य की बात है कि दिल्ली चुनाव में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जो दिल्ली की बड़ी समस्याओं का समाधान करता हो। दिल्ली के मतदाताओं को मोटे तौर पर व्यक्तिगत हमले सुनने को मिल रहे हैं और ऐसे मुद्दों पर बात हो रही है जो दिल्ली को आगे ले जाने वाले एवं विकसित राजधानी बनाने वाले नहीं हैं। भारत को तेज आर्थिक विकास की आवश्यकता है, दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर देश की राजधानी के चुनाव को इसके लिए पूंजी, पर्यावरण और ऊर्जा की टिकाऊ वृद्धि सुनिश्चित करने पर केंद्रित रहना चाहिए। इससे जुड़ा एक मसला रोजगार तैयार करने का है। सबसे अहम मुद्दा दिल्ली का विकास एवं प्रदूषण मुक्त परिवेश का है। लेकिन सभी राजनीतिक दल इन मुद्दों से हटकर फ्री की सुविधाओं पर ही केन्द्रित है, भला दिल्ली में अच्छे दिन कैसे आयेंगे एवं विकास की तस्वीर कैसे बनेगी? कभी-कभी लगता है समय का पहिया तेजी से चल रहा है जिस प्रकार से घटनाक्रम चल रहा है, वह और भी इस आभास की पुष्टि करा देता है। पर समय की गति न तेज होती है, न रुकती है। हां चुनाव घोषित हो जाने से तथा प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने से जो क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हो रही हैं उसने ही सबके दिमागों में सोच की एक तेजी ला दी है। प्रत्याशियों के चयन व मतदाताओं को रिझाने के कार्य में तेजी आ गई है, लेकिन जनता से जुड़े जरूरी मुद्दों पर एक गहरा मौन पसरा है। न गरीबी मुद्दा है, न बेरोजगारी मुद्दा है। महंगाई, बढ़ता भ्रष्टाचार, बढ़ता प्रदूषण, राजनीतिक अपराधीकरण एवं दिल्ली का विकास जैसे ज्वलंत मुद्दे नदारद हैं। दिल्ली की मानसिकता घायल है तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। पुराने चेहरों पर उसका विश्वास नहीं रहा। अब प्रत्याशियों का चयन कुछ उसूलांे के आधार पर होना चाहिए न कि मुफ्त की संस्कृति और जीतने की निश्चितता के आधार पर। मतदाता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ की परिपक्वता दिखाई दे रही है लेकिन फिर भी अनपढ़ एवं गरीब मतदाता फ्री की सुविधाओं पर सोचता है और अक्सर उसी आधार पर वोट देता है। जबकि एक बड़ा मतदाता वर्ग ऐसा भी है जो उन्नत सड़के, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं को भी बेहतर देखना चाहता है। उसके लिये यमूना में बढ़ता प्रदूषण भी चिन्ता का एक कारण है। समय पर जल आपूर्ति न होना भी उसकी समस्याओं में शामिल है। चूंकि मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग योग्यता और व्यापक जनहित के मुद्दे पर नहीं करता, इसलिए वह मुफ्त की संस्कृति में डूबा है। इसलिये उसके जीवन स्तर में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आता है, विकास तो बहुत पीछे रह जाता है।सब दल और उनके नेता सत्ता तक येन-केन-प्रकारेण पहुंचना चाहते हैं, लेकिन जनता को लुभाने के लिये उनके पास बुनियादी मुद्दों का अकाल है। जबकि दिल्ली अनेक समस्याओं से घिरी है, लेकिन इन समस्याओं की ओर किसी भी राजनेता का ध्यान नहीं है। बेरोजगारी एक विकट समस्या है, पर क्या कारोबार और निजी उद्यमों को बढ़ाए बिना केवल सरकारी नौकरियों के सहारे दिल्ली के युवाओं को रोजगार दिया जा सकता है? क्या सरकारी नौकरियां ही रोजगार हैं? क्या आप अपने कारोबार में किसी को उसकी उत्पादकता की परवाह किए बिना नौकरी पर रखना चाहेंगे? मगर सरकारी नौकरियों में यही होता है। क्या यह आम जनता के करों के पैसे का सही उपयोग है? जनता के मतों का ही नहीं, उनकी मेहनत की कमाई पर लगे करोें का भी जमकर दुरुपयोग हो रहा है। राजनेताओं द्वारा चुनाव के दौरान मुफ्त बांटने की संस्कृति ने जन-धन के दुरुपयोग का एक और रास्ता खोल दिया है।हमारे चुनावी लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि बुनियादी मुद्दों की चुनावों में कोई चर्चा ही नहीं होती। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त चिकित्सा, महिलाओं के खातों में नगद सहायता पहुंचाने से लेकर कितनी तरह से मतदाता को लुभाने एवं लूटने के प्रयास होते हैं। न हवा शुद्ध, न पानी शुद्ध, सड़कों पर गड्ढे- इ

दिल्ली में मुफ्त की होड़ में बुनियादी मुद्दे गायब?
The Odd Naari
लेखिका: स्नेहा शर्मा, टीम नेतानागरी
दिल्ली में राजनीतिक सरगर्मियों के बीच एक प्रश्न उठता है - क्या मुफ्त की होड़ में बुनियादी मुद्दे पूरी तरह गायब होते जा रहे हैं? राजधानी की राजनीति में चुनावी वादों का समय चल रहा है और सभी दल अपने-अपने तरीके से जनता को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। इस लेख में हम इस मुद्दे की गहराई में जाएंगे और जानेंगे कि दरअसल इस समय दिल्ली में बुनियादी मुद्दे क्या हैं, और उन्हें किन बीते वादों से महत्व मिलता है।
फ्रीबीज का जाल: क्या हमें रोकना चाहिए?
इलक्टोरल इकोनॉमी में तेजी से बढ़ते फ्रीबीज यानी मुफ्त सुविधाओं का दायरा दिल्ली में चर्चा का प्रमुख मुद्दा बन चुका है। राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा ने ऐसे वादे किए हैं कि अगर सत्ता में आए तो वो आम जनता को मुफ्त इलेक्ट्रिसिटी, पानी, और यहां तक कि स्मार्टफोन जैसे सामान देने का आश्वासन दे रहे हैं। पर क्या ऐसा करना वाकई में सामाजिक विकास के लिए फायदेमंद है? क्या यह केवल चुनावी स्वार्थ है या सच में किसी सुधार की ओर बढ़ने का एक प्रयास?
बुनियादी मुद्दे क्या हैं?
बुनियादी मुद्दों की बात करें तो हमें यह समझना होगा कि दिल्ली में रोजगार, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, और परिवहन जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ कितनी महत्वपूर्ण हैं। इन चीज़ों पर ध्यान देने के बजाय अगर हम केवल मुफ्त चीज़ों की राजनीतिक चर्चा में उलझे रहें, तो हम अपने विकास की यात्रा को रोक रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि राजनीतिक पार्टियाँ इन मुद्दों पर भी ध्यान दें।
जनता की प्रतिक्रिया
दिल्ली की जनता अब इस बात को लेकर सजग हो चुकी है। कई लोग राजनीतिक दलों के मुफ्त वादों को चुनावी हथकंडा मानते हैं। उनका मानना है कि अगर इन मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया, तो आने वाले दिनों में सामाजिक सुरक्षा का ढांचा कमजोर होगा। इससे आर्थिक असमानता और बढ़ेगी। ऐसे में, जनता को चाहिए कि वो अपने मत का सही इस्तेमाल करते हुए उन दलों का चयन करें जो उनके बुनियादी मुद्दों पर भी चर्चा कर रहे हैं।
निष्कर्ष
दिल्ली की राजनीतिक परिदृश्य में मुफ्त की होड़ ने निश्चित रूप से ध्यान खींचा है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने बुनियादी मुद्दों को न खो दें। चुनावी वादों के पीछे के दीर्घकालिक प्रभावों को समझना अत्यंत आवश्यक है। राजनीति को केवल सुविधा प्रदान करने वाली नहीं, बल्कि टिकाऊ विकास और सशक्तिकरण का भी साधन बनाना चाहिए। इसलिए, मीडिया और जनता दोनों को इस दिशा में जागरूक रहना होगा।
कम शब्दों में कहें तो, दिल्ली के बुनियादी मुद्दों की अनदेखी करना एक दीर्घकालिक खतरा है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अगले चुनावों में ये मुद्दे भी प्रमुखता से उठें। फ्रीबीज की आवाज़ें सुनने के साथ ही, हमें अपनी जरूरतों का ध्यान रखना चाहिए।