संपादक की अनुशंसा और लिखित माफी ने बचाई मेरी नौकरी: एक पत्रकार की दास्तान

इमरजेंसी में एक-एक शब्द सरकार जांचती थी तब छपता था अखबार। रमेश शर्मा। संविधान में आपात काल लगाने का प्रावधान है, लेकिन यह तब है जब संकट राष्ट्र पर हो, लेकिन 25 जून 1975 को राष्ट्र पर कोई संकट नहीं था। फिर भी आपात काल लागू किया गया था। सभी नागरिकों के संवैधानिक अधिकार निलंबित […] The post संपादक की अनुशंसा और मेरी लिखित माफी से नौकरी बची first appeared on Apka Akhbar.

संपादक की अनुशंसा और लिखित माफी ने बचाई मेरी नौकरी: एक पत्रकार की दास्तान
संपादक की अनुशंसा और मेरी लिखित माफी से नौकरी बची

संपादक की अनुशंसा और लिखित माफी ने बचाई मेरी नौकरी: एक पत्रकार की दास्तान

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कम शब्दों में कहें तो, 1975 का आपातकाल भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक काला अध्याय है, जहां एक पत्रकार के शब्दों की ताकत को भी सरकार ने नकारने की कोशिश की। इस तथ्य को रमेश शर्मा ने ऐतिहासिक रूप से उजागर किया है कि उस समय, हर शब्द पर सरकार की नज़र होती थी और कोई भी प्रकाशन बिना अनुमति के सामने नहीं आता था। समय का यह टकराव न केवल पत्रकारों के लिए, बल्कि समग्र लोकतंत्र के लिए चुनौतीपूर्ण था। मेरे लिए, इस अंधेरी घड़ी में संपादक की अनुशंसा और अपने द्वारा प्रस्तुत लिखित माफी ही मेरी नौकरी को बचा सकी।

आपातकाल का ऐतिहासिक संदर्भ और चुनौतियाँ

जून 25, 1975 का दिन भारतीय इतिहास का वह दिन था, जब आपातकाल लागू किया गया। इस समय देश में कोई वास्तविक संकट नहीं था, बल्कि यह एक राजनीतिक संकट का परिणाम था। संविधान में आपातकाल लगाने का प्रावधान तभी होता है जब राष्ट्र पर गंभीर संकट हो। फिर भी, उस समय सभी नागरिकों के मूलभूत अधिकार निलंबित कर दिए गए। इस दौर में, पत्रकारिता का काम सबसे कठिन हो गया। ना केवल समाचार पत्रों को सेंसर किया गया, बल्कि पत्रकारों को भी अपने विचार और रिपोर्टिंग के सटीकता पर ध्यान देना पड़ा। रमेश शर्मा का मानना है कि इस हालात ने लोकतंत्र के मूल तत्वों को भी कमजोर किया। इस विपरीत स्थिति में, मैंने अपनी नौकरी की सुरक्षा के लिए संपादक की अनुशंसा प्राप्त की और अपनी गलतियों के लिए माफी मांगी।

संपादक की अनुशंसा का प्रभाव

जिस समय पत्रकारिता पर खतरे के बादल मंडरा रहे थे, संपादक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गई। वे एक मार्गदर्शक के रूप में सामने आए, जिन्होंने मेरी मेहनत को मान्यता दी और मुझे अपने लेखन पर पुनर्विचार करने का अवसर दिया। संपादक द्वारा अधिकृत अनुशंसा वास्तव में एक निशान बन गई, जिसने न केवल मुझे सहायता दी बल्कि यह भी दिखाया कि एक अच्छा संपादक अपने पत्रकारों का कैसे समर्थन कर सकता है, विशेषकर चुनौतीपूर्ण समय में।

लिखित माफी का गुण

लिखित माफी की आवश्यकता को मैंने हमेशा एक औपचारिकता से अधिक समझा। यह मेरे लिए आत्म-विश्लेषण का एक अवसर थी। इससे मुझे यह एहसास हुआ कि हमारी गलतियों से ही हम आगे बढ़ सकते हैं। न केवल यह मेरे पेशेवर जीवन के लिए महत्वपूर्ण था, बल्कि यह मुझे व्यक्तिगत रूप से भी मजबूत बनाता है। जब भी हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकारी सेंसरशिप पर चर्चा करते हैं, यह सीख कभी भुलाने वाली नहीं होती।

निष्कर्ष

संपादक की अनुशंसा और लिखित माफी से नौकरी बचाने का यह अनुभव मेरे लिए एक जीवन परिवर्तक सिद्धांत बन गया। आपातकाल ने पत्रकारिता को न केवल कठिनाइयाँ दीं, बल्कि हमें ये भी सिखाया कि अपने सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति सच्चे रहना कितना आवश्यक है। यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं, बल्कि हमारी पत्रकारिता की है, जिन्होंने सच्चाई के लिए निरंतर संघर्ष किया है। आज हमें सच्चाई और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एकजुट होकर आवाज उठाने की आवश्यकता है।

इस अनुभव की गहराई हमें दिखाती है कि हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए। 1975 का आपातकाल एक ठोस उदाहरण है, जो यह दर्शाता है कि कैसे संकटों का सामना करना हमें मजबूती देता है।

फिर भी, यह यात्रा आज भी जारी है, और हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हमारी आवाज ही हमारी ताकत है।

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सादर,
टीम द ऑड नारी - राधिका गुप्ता