'सियासी पापों' से जनहित की रक्षा के लिए गठित करनी होगी स्वतंत्र एजेंसी?
भारत की संसदीय राजनीति एक बार फिर सवालों के घेरे में है। यहां राजनीतिक दलों और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को प्राप्त बेहिसाब अधिकार के दुरूपयोग की जिस तरह की दुनियावी खबरें मिल रही हैं, उससे पक्ष-विपक्ष दोनों की सियासी भूमिका संदेह के घेरे में है। सुलगता सवाल है कि जब राजनीतिक दलों और उनके द्वारा ही राष्ट्रीयता विरोधी कार्रवाई की जाएगी, राष्ट्रवाद की अवधारणा को मुंह चिढ़ाते हुए जनविरोधी फैसले लिए जाएंगे और कानून बनाए जाएंगे तो फिर इसकी निष्पक्ष जांच कौन करेगा? चूंकि भारत में जिन दलित, आदिवासी और पिछड़े मतदाताओं का बहुमत है, उनकी कानूनी शिक्षा व राजनीतिक साक्षरता उस स्तर की नहीं है, जो किसी भी लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है। इसलिए उन्हें आरक्षण, जातिवाद और साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर सियासी समूहों द्वारा बरगलाया जाता है और जनविरोधी-राष्ट्रविरोधी कुकृत्य संपादित किये जाते हैं, इसलिए प्रबुद्ध सिविल सोसाइटी का जगना बदलते वक्त की मांग है, अन्यथा देश को पुनः गुलाम होने से कोई नहीं रोक सकता।इसे भी पढ़ें: भारत-अमेरिका मैत्री से विकास के नये रास्ते खुलेंगेसच कहूं तो जैसे मुगल शासक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दांवपेंच को नहीं समझ पाए और अंग्रेजों के हाथों अपनी सत्ता गंवा दी, कुछ उसी तरह की भूल हमारी निर्वाचित सरकारें एक-दूसरे दल को दबाने के लिए कर रही हैं। कोई दल अमेरिका के हाथ में खेल रहा है, तो कोई दल चीन के हाथ में। कोई पार्टी अरब मुल्कों के प्रभाव में है तो कोई पार्टी यूरोपीय देशों के प्रभाव में। यह अनुचित है और इससे बचने का एक मात्र रास्ता है कि हमलोग आओ कानून-कानून खेलें वाली प्रवृत्ति से बचें। बेहतर तो यही होगा कि जैसे पूरे देश में एक समान मताधिकार कानून है, उसी तरह से हरेक मुद्दे पर एक समान कानून बने। इसमें जाति, भाषा, क्षेत्र, सम्प्रदाय, लिंग अथवा वर्ग मूलक आदि के नजरिए से कोई विभिन्नता पैदा नहीं की जाए और इस मामले में ब्रितानी नीतियों का ट्रू कॉपी समझे जाने वाले हमारे संविधान में अपेक्षित संशोधन किए जाएं। अन्यथा तर्क पर कुतर्क भारी पड़ेगा। लोकतंत्र महज भीड़तंत्र बनकर रह जाएगा। इसे सभ्य तन्त्र में तब्दील करना दिवास्वप्न बन जायेगा।अमूमन, चुनावों में धनबल के बढ़ते प्रयोग और उस धन को एकत्रित करने के लिए राजनीतिक दलों व उनके प्रतिनिधियों द्वारा विभिन्न स्तरों पर किए जाने वाले नीतिगत समझौते से ही भारत और भारतीयों दोनों का भविष्य प्रभावित होने लगे और मुट्ठी भर अभिजात्य लोगों की चांदी हो जाए तो फिर क्या किया जा सकता है। ये बातें मैं इसलिए छेड़ रहा हूँ कि इस बारे में सत्ता पक्ष और विपक्ष में, जो तू-तू, मैं-मैं होती रहती है, उससे अक्सर संशय पैदा होती है। चूंकि इस आत्मघाती सियासी प्रवृत्ति को रोकने में हमारी उच्च पदस्थ कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों विफल रही है, इनके विश्लेषण में मीडिया की भूमिका भी पक्षपाती और अभिजात्य वर्गीय हितों की संरक्षक प्रतीत हुई है, इसलिए इन तमाम मामलों की निष्पक्ष जांच और अपेक्षित समतामूलक कार्रवाई के लिए "न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया और सिविल सोसाइटी के प्रबुद्ध, उच्च योग्यताधारी, समाजसेवा में अनुभवी और वैचारिक साख रखने वाले व्यक्तियों की एक जिम्मेदार स्वतंत्र एजेंसी" बनाये जाने और इनके प्राप्त निष्कर्षों पर जनमत सर्वेक्षण कराए जाने की जरूरत है, ताकि भारतीय संसद द्वारा बनाए गए राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और जनविरोधी कानूनों की समीक्षा समय-समय पर की जा सके। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि बहुमत के जुगाड़ में राजनीतिक दल जो कुछ भी फैसले लिए गए हैं या लिए जाते हैं, या लिए जाने वाले हैं उससे साफ दृष्टिगोचर हो रहा है कि ये कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना की तर्ज पर कार्य कर रहे हैं। लिहाजा, सभ्य समाज के निर्माण में इनकी भूमिका भी पक्षपाती प्रतीत होती आई है। वहीं, हमारी संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष की मिलीभगत से विभिन्न बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और स्वार्थपरक पेशेवर या सामाजिक-आर्थिक दबाव समूहों के हित में जो कानून बनाए गए हैं, उससे आम भारतीय यानी आम आदमी के दूरगामी हितों पर कुठाराघात पहुंचा है। इसलिए जनहित के विरोध में जो फैसले लिए गए हैं, तत्सम्बन्धी कानून बनाए गए हैं, उन्हें बदलवाने में भी उपर्युक्त एजेंसी की भूमिका को सार्थक बनाने की दरकार है। इन बातों को समझने-समझाने के लिए यहां पर एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। मसलन, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गुरुवार 20 फरवरी को कहा है कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन भारत में किसी और को सत्ता में लाना चाहते थे। साथ ही उन्होंने एक बार फिर मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए भारत को 2.1 करोड़ अमेरिकी डॉलर आवंटित करने के बाइडन प्रशासन के फैसले पर सवाल उठाया। लिहाजा, इस मामले को लेकर भाजपा और कांग्रेस पुनः आमने-सामने आ गई हैं।दरअसल, ट्रंप ने गुरुवार को मियामी में एफआईआई प्राथमिकता शिखर सम्मेलन में ये टिप्पणियां कीं। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि बाइडन प्रशासन भारत में किसी और को निर्वाचित करने की कोशिश कर रहा था। हमें भारत सरकार को बताना होगा। हैरतअंगेज है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अक्सर विदेश दौरे पर जाकर सार्वजनिक तौर पर भारत के लोकतंत्र में विदेशी ताकतों के हस्तक्षेप की मांग करते हैं। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति ने फंडिंग की पुष्टि कर उनको मिल रही मदद पर मुहर लगा दी है। इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए वरिष्ठ भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने ट्रंफ को कोट करते हुए कहा कि "हमें भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए 2.1 करोड़ डॉलर खर्च करने की क्या जरूरत है। उनका बयान एलन मस्क के नेतृत्व वाले सरकारी दक्षता विभाग (डीओजीई) द्वारा खुलासा करने के बाद आया है।" वहीं, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा है कि "यूएस एड से जुड़े ट्रप के दावे बेतुके हैं। इस पर केंद्र श्वेत पत्र जारी करे, जिसमें दशकों से यूएसएड की ओर से सरकारी और गैर सरकारी

“सियासी पापों” से जनहित की रक्षा के लिए गठित करनी होगी स्वतंत्र एजेंसी?
The Odd Naari द्वारा रिपोर्ट, लेखिका: प्रिया शर्मा, टीम नेटानगरी
प्रस्तावना
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में "सियासी पापों" की बहस ने नई बहसों को जन्म दिया है। जनता का विश्वास जब राजनीतिक पार्टियों पर घटता है, तो यह जरूरी हो जाता है कि ऐसी स्थिति से निपटने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी गठित की जाए जो जनहित की रक्षा कर सके। आइए, इस मुद्दे पर गहराई से चर्चा करते हैं।
सियासी पापों का अर्थ
“सियासी पाप” का तात्पर्य उन गलत कार्यों से है जो राजनीतिक विचारधाराओं के मानकों से भटककर समाज को नुकसान पहुँचाते हैं। इसमें भ्रष्टाचार, सामाजिक न्याय का उल्लंघन, और लोक कल्याण से जुड़े मुद्दों की अनदेखी शामिल हैं। जब ऐसे सियासी पाप बढ़ते हैं, तो आम जनता का जीवन प्रभावित होता है, जिसके लिए एक स्वतंत्र एजेंसी की जरूरत होती है।
स्वतंत्र एजेंसी का आवश्यकता
एक स्वतंत्र एजेंसी का निर्माण कई कारणों से आवश्यक हो जाता है। सबसे पहले, यह राजनीति के दखल से मुक्त होकर जनहित के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सकेगी। दूसरी बात, इसके माध्यम से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही नीतियों की पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी नीतिगत निर्णय का समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, तो यह एजेंसी उस पर रुख स्पष्टीकरण कर सकेगी।
सकारात्मक प्रभाव
यदि हम स्वतंत्र एजेंसी की बात करें, तो यह शासन प्रणाली में वास्तविक परिवर्तन ला सकती है। यह लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा। स्वतंत्र एजेंसी द्वारा प्रस्तुत ठोस डेटा और विश्लेषण से राजनीतिक दलों में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा पैदा हो सकती है। यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए भी महत्वपूर्ण होगा।
नकारात्मक पहलू
हालांकि, स्वतंत्र एजेंसी के गठन के पीछे कुछ चुनौतियाँ भी हो सकती हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावित होने का खतरा हमेशा बना रहता है। इसलिए, यह आवश्यक है कि एजेंसी को स्वतंत्र रूप से संचालित करने के लिए उचित ढांचा और निगरानी तंत्र स्थापित किया जाए।
निष्कर्ष
इस परिदृश्य में, यह स्पष्ट है कि "सियासी पापों" से बचने और जनहित की रक्षा के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन करना अति आवश्यक हो गया है। यदि ऐसा होता है, तो यह भारतीय लोकतंत्र को एक नई दिशा दे सकता है। इसके माध्यम से न केवल राजनीतिक दलों में पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि यह जनता के विश्वास को भी पुनर्स्थापित करेगा।
For more updates, visit theoddnaari.com.