भारत को केंद्र में रखकर संघ का निर्माण और इसकी सार्थकता: डॉ. मोहन भागवत
संघ शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला के प्रथम दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में है। संघ कार्य की प्रेरणा संघ प्रार्थना के अंत में कहे जाने वाले “भारत माता की जय” से मिलती है। संघ के उत्थान की प्रक्रिया धीमी और लंबी रही है, जो आज भी निरंतर जारी है। उन्होंने कहा कि संघ भले हिंदू शब्द का उपयोग करता है, लेकिन उसका मर्म ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। इसी क्रमिक विकास के तहत गांव, समाज और राष्ट्र को संघ अपना मानता है। संघ कार्य पूरी तरह स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होता है। कार्यकर्ता स्वयं नए कार्यकर्ता तैयार करते हैं।दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘100 वर्ष की संघ यात्रा - नए क्षितिज’ विषय पर तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया है।व्याख्यानमाला के उद्देश्य पर मोहन भागवत ने कहा कि संगठन ने विचार किया कि समाज में संघ के बारे में सत्य और सही जानकारी पहुंचनी चाहिए। वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार का आयोजन हुआ था। इस बार चार स्थानों पर कार्यक्रम आयोजित होंगे ताकि अधिक से अधिक लोगों तक संघ का सही स्वरूप पहुँच सके। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की परिभाषा सत्ता पर आधारित नहीं है। हम परतंत्र थे, तब भी राष्ट्र था। अंग्रेजी का ‘नेशन’ शब्द ‘स्टेट’ से जुड़ा है, जबकि भारतीय राष्ट्र की अवधारणा सत्ता से जुड़ी नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद देश में उपजी विचारधाराओं का विकास पर कहा कि 1857 में स्वतंत्रता का पहला प्रयास असफल रहा, लेकिन उससे नई चेतना जागी। उसके बाद आंदोलन खड़ा हुआ कि आखिर कुछ मुट्ठीभर लोग हमें कैसे हरा सके। एक विचार यह भी उभरा कि भारतीयों में राजनीतिक समझ की कमी है। इसी आवश्यकता से कांग्रेस का उदय हुआ, लेकिन स्वतंत्रता के बाद वह वैचारिक प्रबोधन का कार्य सही प्रकार से नहीं कर सकी। यह दोषारोपण नहीं, बल्कि तथ्य है। आजादी के बाद एक धारा ने सामाजिक कुरीतियों को मिटाने पर जोर दिया, वहीं दूसरी धारा ने अपने मूल की ओर लौटने की बात रखी। स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद ने इस विचार को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों का मानना था कि समाज के दुर्गुणों को दूर किए बिना सब प्रयास अधूरे रहेंगे। बार-बार गुलामी का शिकार होना इस बात का संकेत है कि समाज में गहरे दोष हैं। हेडगेवार जी ने ठाना कि जब दूसरों के पास समय नहीं है, तो वे स्वयं इस दिशा में काम करेंगे। 1925 में संघ की स्थापना कर उन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज के संगठन का उद्देश्य सामने रखा।हिंदू नाम का मर्म समझाते हुए सरसंघचालक जी ने स्पष्ट किया कि ‘हिंदू’ शब्द का अर्थ केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का भाव है। यह नाम दूसरों ने दिया, पर हम अपने को हमेशा मानव शास्त्रीय दृष्टि से देखते आये हैं। हम मानते हैं कि मनुष्य, मानवता और सृष्टि आपस में जुड़े हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। हिंदू का अर्थ है समावेश और समावेश की कोई सीमा नहीं होती। सरसंघचालक जी ने कहा कि हिंदू यानी क्या - जो इसमें विश्वास करता है, अपने अपने रास्ते पर चलो, दूसरों को बदलो मत। दूसरे की श्रद्धा का भी सम्मान करो, अपमान मत करो, ये परंपरा जिनकी है, संस्कृति जिनकी है, वो हिंदू हैं। हमें संपूर्ण हिन्दू समाज का संगठन करना है। हिन्दू कहने से यह अर्थ नहीं है कि हिन्दू वर्सेस ऑल, ऐसा बिल्कुल नहीं है। ‘हिन्दू’ का अर्थ है समावेशी।उन्होंने कहा कि भारत का स्वभाव समन्वय का है, संघर्ष का नहीं है। भारत की एकता का रहस्य उसके भूगोल, संसाधनों और आत्मचिंतन की परंपरा में है। हमने बाहर देखने के बजाय भीतर झाँककर सत्य को तलाशा। इसी दृष्टि ने हमें सिखाया कि सबमें एक ही तत्व है, भले ही वह अलग-अलग रूपों में दिखता हो। यही कारण है कि भारत माता और पूर्वज हमारे लिए पूजनीय हैं।मोहन भागवत ने कहा कि भारत माता और अपने पूर्वजों को मानने वाला ही सच्चा हिंदू है। कुछ लोग खुद को हिंदू मानते हैं, कुछ भारतीय या सनातनी कहते हैं। शब्द बदल सकते हैं, लेकिन इनके पीछे भक्ति और श्रद्धा की भावना निहित है। भारत की परंपरा और डीएनए सभी को जोड़ता है। विविधता में एकता ही भारत की पहचान है। उन्होंने कहा कि धीरे-धीरे वे लोग भी स्वयं को हिंदू कहने लगे हैं, जो पहले इससे दूरी रखते थे। क्योंकि जब जीवन की गुणवत्ता बेहतर होती है तो लोग मूल की ओर लौटते हैं। हम लोग ऐसा नहीं कहते कि आप हिंदू ही कहो। आप हिंदू हो, ये हम बताते हैं। इन शब्दों के पीछे शब्दार्थ नहीं है, कंटेंट है, उस कंटेंट में भारत माता की भक्ति है, पूर्वजों की परंपरा है। 40 हजार वर्ष पूर्व से भारत के लोगों का डीएनए एक है। उन्होंने कहा कि जो अपने आपको हिंदू कह रहे हैं, उनका जीवन अच्छा बनाओ। जो नहीं कहते वो भी कहने लगेंगे। जो किसी कारण भूल गये, उनको भी याद आयेगा। लेकिन करना क्या है, संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन। जब हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं तो किसी को छोड़ रहे हैं, ऐसा नहीं है। संघ किसी विरोध में और प्रतिक्रिया के लिए नहीं निकला है। हिंदू राष्ट्र का सत्ता से कोई लेना देना नहीं है ।उन्होंने संघ कार्य पद्धति के बारे में कहा कि समाज उत्थान के लिए संघ दो मार्ग अपनाता है - पहला, मनुष्यों का विकास करना और दूसरा उन्हीं से आगे समाज कार्य कराना। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संगठन है। संगठन का कार्य मनुष्य निर्माण का कार्य करना है। संघ के स्वयंसेवक विविध क्षेत्रों में काम करते हैं, लेकिन संगठन उन्हें नियंत्रित नहीं करता। उन्होंने कहा कि संघ को लेकर विरोध भी हुआ और उपेक्षा भी रही। लेकिन संघ ने समाज को अपना ही माना। व्यक्तिगत समर्पण से चलता है संघसंघ की विशेषता है कि यह बाहरी स्रोतों पर निर्भर नहीं, बल्कि स्वयंसेवकों के व्यक्तिगत समर्पण पर चलता है। ‘गुरु दक्षिणा’ संघ की कार्यपद्धति का अभिन्न हिस्सा है, जिसके माध्यम से प्रत्येक

भारत को केंद्र में रखकर संघ का निर्माण और इसकी सार्थकता: डॉ. मोहन भागवत
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कम शब्दों में कहें तो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित '100 वर्ष की संघ यात्रा - नए क्षितिज' विषय पर व्याख्यानमाला के पहले दिन एक महत्वपूर्ण संदेश दिया। उन्होंने कहा कि संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ है और इसकी वास्तविक सार्थकता भारत के विश्वगुरु बनने में निहित है।
संघ की प्रेरणा और कार्यप्रणाली
डॉ. भागवत ने बताया कि संघ की प्रेरणा संघ प्रार्थना में "भारत माता की जय" के घोष से मिलती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ का कार्य एक लंबी और निरंतर प्रक्रिया है तथा इसकी प्रयास पूरी तरह से स्वयंसेवकों द्वारा संचालित होती है। उन्होंने कहा कि संघ यदि 'हिंदू' शब्द का उपयोग करता है, तो इसका अर्थ 'वसुधैव कुटुंबकम' है, जो सभी मानवता के लिए एकता का स्वरूप प्रस्तुत करता है।
राष्ट्र की नई परिभाषा
डॉ. भागवत ने राष्ट्र की परिभाषा पर सोचने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्र का अर्थ केवल सत्ता पर निर्भर नहीं होता। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जब हम परतंत्र थे, तब भी हमने राष्ट्र की खुद की पहचान बनाई थी। भारतीय संस्कृति की अवधारणा केवल एक राजनीतिक शक्ति से भिन्न है; यह विचार और आवश्यकताओं का संयोग है।
स्वतंत्रता संग्राम की सीख
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र करते हुए बताया कि 1857 में पहला स्वतंत्रता प्रयास असफल होते हुए भी नई चेतना का संचार करता है। इस ने भारतीय समाज में राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाया। उन्होंने कहा कि इस समय दो महत्वपूर्ण धाराएं अस्तित्व में आईं: एक ने सामाजिक कुरीतियों का नाश किया, जबकि दूसरी ने अपनी मूल संस्कृति की ओर लौटने की आवश्यकता का ज्ञान दिया।
हिंदू पहचान का महत्व
डॉ. भागवत ने 'हिंदू' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि यह केवल धार्मिक नहीं, بلکه राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का प्रतीक है। उन्होंने बताया कि सही हिंदू वही है जो दूसरों का सम्मान करता है और सहिष्णुता का मूल्य मानता है।
संघ की योजनाबद्ध कार्यपद्धति
संघ की कार्यपद्धति की जानकारी देते हुए डॉ. भागवत ने कहा कि संघ का प्राथमिक उद्देश्य मनुष्यों का विकास करना और समाज में सेवा कार्य कराना है। संघ के स्वयंसेवक अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते हैं और उनका समर्पण संघ की पहचान को मजबूत बनाता है।
निष्कर्ष और भविष्य की दिशा
डॉ. भागवत के विचारों ने साफ कर दिया कि संघ की स्थापना का उद्देश्य केवल एक संगठन बनाना नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति को एकता की धारा में प्रवाहित करना भी है। उन्होंने कहा कि जब हम एक समग्र हिंदू समाज की चर्चा करते हैं, तो इसका आशय सभी को एकजुट करना है, न कि किसी को छोड़ना। इससे भारत का समग्र विकास संभव है और यह हमारे देश को विश्वगुरु की दिशा में अग्रसरित करेगा।
अंततः, डॉ. भागवत ने यह बताया कि भारत की पहचान उसकी विविधता में एकता है। संघ का कार्य केवल एक धार्मिक संगठन के रूप में न देखकर, यह सामाजिक एकता और मानवता की जिम्मेदारी हमारे परंपरागत मूल्यों के साथ जोड़ता है।
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सादर,
टीम द ओद्द नारी (कल्पना शर्मा)